भूख से जूझते अमेरिका में हुए 1932 के ओलिंपिक: डाकघर और स्कूलों में ठहराए एथलीट; अश्वेत एथलीट ने कैसे तोड़ा हिटलर का घमंड

[ad_1]

1930 के दशक में दुनिया महामंदी यानी ग्रेट डिप्रेशन के दौर से गुजर रही थी। अमेरिका की एक बड़ी आबादी भुखमरी से जूझ रही थी। मंदी के चपेट में तमाम देश थे। ऐसे में 1932 के ओलिंपिक खेलों की मेजबानी में सिर्फ अमेरिका ने इंट्रेस्ट दिखाया। उसे मेजबानी मिल भी

.

30 जुलाई 1932 को ओलिंपिक गेम शुरू हुए। ओपनिंग सेरेमनी में रिकॉर्ड एक लाख से ज्यादा लोग पहुंचे। परंपरा के अनुसार ओलिंपिक की शुरुआत उस देश के राष्ट्र प्रमुख करते थे, लेकिन इस आयोजन में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर नहीं पहुंचे।

‘ओलिंपिक के किस्से’ सीरीज के तीसरे एपिसोड में जानेंगे अमेरिकी राष्ट्रपति ने खुद के ही देश में क्यों किया ओलिंपिक का बायकॉट? यहूदियों के लिए नरक क्यों बन गया 1936 का ओलिंपिक; कब-कब खतरे में पड़ा ओलिंपिक का आयोजन…

28 जून 1914, ऑस्ट्रिया के प्रिंस आर्क ड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड और उनकी पत्नी सोफी बोस्निया के साराजेवो की राजकीय यात्रा पर पहुंचे। जहां दोनों का जोरदार स्वागत किया गया। ग्रैंड वेलकम के बाद फर्डिनेंड और उनकी पत्नी खुली कार में लोगों का अभिवादन स्वीकारते हुए डेस्टिनेशन की तरफ बढ़ रहे थे।

हत्या से पहले ऑस्ट्रिया के प्रिंस फर्डिनेंड और उनकी पत्नी।

अचानक भीड़ में से एक शख्स उनकी कार की तरफ बम फेंकता है, लेकिन दोनों पति-पत्नी किसी तरह हमले से बच निकलते हैं। हादसे से संभलकर काफिला कुछ दूर आगे बढ़ा ही था कि भीड़ में से 19-20 साल का एक लड़का पिस्तौल लेकर निकलता है। जब तक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी कुछ समझ पाते, वह युवक दोनों को अपनी गोलियों का शिकार बना लेता है। अगले ही पल सुरक्षाकर्मी युवक को दबोच लेते हैं। हमलावर सर्बिया का बताया जाता है।

अपने राजकुमार की हत्या से गुस्साए ऑस्ट्रिया ने हंगरी के साथ मिलकर सर्बिया पर हमला कर दिया। कई गुना छोटे सर्बिया ने युद्ध में सोवियत रूस की मदद ली। देखते ही देखते बाकी देश भी युद्ध में जुड़ गए। यहां से शुरू हुआ पहला विश्वयुद्ध जो अगले चार साल यानी 1918 तक चला।

विश्वयुद्ध के कारण पहली बार टला ओलिंपिक, कई देशों ने झेला बैन
पहले विश्व युद्ध के दौरान दुनिया भर के कई बड़े इवेंट प्रभावित हुए। जिनमें से एक ओलिंपिक भी था। विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले 1912 में स्टॉकहोम में ओलिंपिक गेम्स आयोजित किए गए। जहां तय हुआ था कि 1916 के ओलिंपिक बर्लिन में होंगे।

आयोजन से पहले ही जर्मनी समेत पूरी दुनिया विश्व युद्ध की चपेट में आ गई। हालांकि माना जा रहा था कि ओलिंपिक 1916 से पहले खत्म हो जाएगा। क्यूबर्टिन और IOC का मानना था यदि खेलों का आयोजन बर्लिन में होगा तो यह जर्मनी समेत पूरे दुनिया को शांति के लिए प्रेरित करेगा।

बर्लिन ओलिंपिक को सफल बनाने के लिए जर्मन ओलिंपिक आयोजन समिति के अध्यक्ष डॉ. थियोडोर लेवाल्ड और सचिव डॉ. कार्ल डायम ने भरपूर प्रयास किया, लेकिन 1915 में विश्व युद्ध से जर्मनी के हालात और बदतर होते चले गए।

स्प्रिंगफील्ड रिपब्लिकन अखबार के 11 अप्रैल 1916 के अंक में पेज नंबर 8 पर छपी ओलिंपिक के रद्द होने की खबर।

स्प्रिंगफील्ड रिपब्लिकन अखबार के 11 अप्रैल 1916 के अंक में पेज नंबर 8 पर छपी ओलिंपिक के रद्द होने की खबर।

इस दौरान IOC खेलों को किसी और देश में भी आयोजित कराने की कोशिश की गई, लेकिन सफलता नहीं मिली। आखिरकार 1920 में आठ साल के इंतजार के बाद बेल्जियम के एंटवर्प में ओलिंपिक गेम आयोजित किए गए जिनमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया, हंगरी और तुर्की जैसे देशों के खिलाड़ियों को शामिल नहीं किया गया।

1932 में डाकखानों और अस्पतालों में ठहराए गए ओलिंपिक एथलीट
पहले विश्व युद्ध के बाद ओलिंपिक पर बड़ा प्रभाव 1932 की आर्थिक महामंदी ने डाला। अक्टूबर 1929 में अमेरिका के शेयर बाजार में तेजी से गिरावट देखने को मिली। इसने दुनिया को साल भर के भीतर ग्रेट डिप्रेशन के बीच ला खड़ा किया।

डिप्रेशन के दौर में मुफ्त कॉफी और खाने के लिए अमेरिका में लाइन में लगे लोग।

डिप्रेशन के दौर में मुफ्त कॉफी और खाने के लिए अमेरिका में लाइन में लगे लोग।

अमेरिका में कई लोग बेघर और बेरोजगार हो गए थे। देश के कई हिस्से भुखमरी जैसे हालात से गुजर रहे थे। इसी दौर में अमेरिकी मजदूरों ने वॉशिंगटन राज्य की कैपिटल ओलंपिया में विरोध प्रदर्शन किया जिसे हंगर मार्च भी कहा गया। भूख जैसी गंभीर समस्या से निपटने के लिए अमेरिका में सरकारी कार्यालयों से जरूरतमंदों को खाना भी बांटा जाता था।

मंदी के दौरान नौकरी मांगते लोगों के बच्चे।

मंदी के दौरान नौकरी मांगते लोगों के बच्चे।

ग्रेट डिप्रेशन के बीच अमेरिका ने दूसरी बार ओलिंपिक खेलों की मेजबानी की, लेकिन कई देश ओलिंपिक के लिए अपने खिलाड़ियों को भेजने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। यही वजह थी कि 1904 के बाद इस आयोजन में सबसे कम खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। 1928 के मुकाबले 1932 में आधे ही खिलाड़ी पहुंचे। डिप्रेशन के कारण दो से तीन महीने तक चलने वाले आयोजन को 2-3 से तीन हफ्तों का कर दिया गया। फीमेल एथलीट्स को लग्जरी होटलों में ठहराया गया, लेकिन खर्च बचाने के लिए मेल एथलीट्स को हॉस्टल, अस्पताल, डाकघर और स्कूलों में रहना पड़ा।

1932 ओलिंपिक की ओपनिंग सेरेमनी में रिकॉर्ड संख्या में दर्शक पहुंचे।

1932 ओलिंपिक की ओपनिंग सेरेमनी में रिकॉर्ड संख्या में दर्शक पहुंचे।

अमेरिकी राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर के ओलिंपिक में शामिल नहीं होने की वजह भी मंदी ही मानी जाती है। हार्बर्ट हूवर को ओलिंपिक की ओपनिंग करने के लिए न्योता भेजा गया था, लेकिन वे ओपनिंग सेरेमनी में नहीं पहुंचे। जिसकी वजह फर्स्ट वर्ल्ड वॉर में शामिल हुए अमेरिकी सैनिक थे।

पहले वर्ल्ड वॉर के बाद सैनिकों की उम्र बढ़ चुकी थी। वे बेरोजगार हो चुके थे और मंदी के दौर में अपना जीवन गुजारने के लिए सरकार से बोनस की मांग कर रहे थे। इन्हीं सैनिकों के समर्थन के लिए हर्बर्ट हूवर ने ओलिंपिक में शामिल नहीं होने का फैसला किया।

यहूदी खिलाड़ियों ने 1936 ओलिंपिक से बाहर रहने का फैसला क्यों किया
1932 के चार साल बाद 1936 में ओलिंपिक गेम्स जर्मनी के बर्लिन पहुंचे। बर्लिन को होस्ट के तौर पर 1931 में चुना गया था। जबकि 1932 में जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व वाली नाजी सरकार शासन में आ गई। हिटलर के इतिहास को देखते हुए बर्लिन की मेजबानी पर संकट मंडराने लगे।

इतिहास तब सच साबित होने लगा, जब हिटलर ने यहूदियों पर एक के बाद एक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए। इसकी खबर जब इंटरनेशनल ओलिंपिक कमेटी को लगी तो उसने आयोजकों से सवाल पूछे। जर्मन आयोजकों ने कमेटी को आश्वस्त किया कि ओलिंपिक में किसी भी एथलीट के साथ भेदभाव नहीं होगा, लेकिन आश्वासन के बाद भी स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ने लगी। नाजी सरकार ने यहूदी खिलाड़ियों के खेलने तक पर प्रतिबंध लगा दिए।

1936 के बर्लिन ओलिंपिक के दौरान नाजी तानाशाह हिटलर।

1936 के बर्लिन ओलिंपिक के दौरान नाजी तानाशाह हिटलर।

जर्मनी में यहूदियों पर बढ़ते अत्याचारों को देखते हुए अमेरिका समेत कई देशों से बर्लिन ओलिंपिक के बायकॉट की आवाजें उठने लगीं। अमेरिका प्रदर्शन के लिहाज से ओलिंपिक में महत्वपूर्ण जगह रखता था। ऐसे में खेलों को किसी अन्य जगह करवाने की मांग भी उठने लगी।

अपनी ओलिंपिक मेजबानी को खतरे में देखते हुए जर्मन डेलीगेट्स ने अमेरिकी ओलिंपिक समिति के अध्यक्ष एवरी ब्रुंडेज को एक बड़े इवेंट में जर्मनी आमंत्रित किया। नाजी मेजबानों से वीआईपी ट्रीटमेंट के बाद ब्रुंडेज ने स्पष्ट किया कि जर्मनी में अब यहूदी एथलीट्स की स्थिति पहले से बेहतर है। उन्होंने अपने देश लौटकर अमेरिका के बर्लिन ओलिंपिक में उतरने की घोषणा भी कर दी। इस घटना के बाद कुछ अमेरिकी अखबारों ने ब्रुंडेज को नाजी कठपुतली तक कह दिया।

अमेरिका के रुख में बदलाव के बाद बर्लिन ओलिंपिक को कई और देशों का साथ मिला और 1936 के खेलों का रास्ता साफ हो गया। हालांकि इन सब के बाद भी कई ऐसी पाबंदियां लगाई गईं जिससे बर्लिन ओलिंपिक यहूदी एथलीट्स के लिए नरक बन गया। वहीं दूसरे देशों के यहूदियों एथलीट्स ने नाजी सरकार के दुर्व्यवहार से बचने के लिए खेलों से दूरी बना ली।

अश्वेत जेसी ओवेन्स ने तोड़ा हिटलर का घमंड

1936 में ओलिंपिक मेडल जीतने के बाद जेसी ओवन्स।

1936 में ओलिंपिक मेडल जीतने के बाद जेसी ओवन्स।

विवादों से घिरे इस ओलिंपिक में सबकी नजरें अफ्रीकी-अमेरिकी एथलीट जेसी ओवन्स पर टिकी थीं। जो 1935 में मिशिगन में एक घंटे के भीतर तीन वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ चुके थे। बर्लिन ओलिंपिक में भी उन्होंने 100 मीटर और 200 मीटर रेस, लॉन्ग जंप और 4×100 मीटर रेस जैसे इवेंट में कुल 4 गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास बनाया।

साथ ही इस अश्वेत एथलीट ने हिटलर और नाजी सरकार के आर्यन्स एथलीट को फोकस में रखने वाले एजेंडे को भी कमजोर किया। हालांकि अश्वेत होने के चलते भेदभाव का सामना ओवन्स को इसके बाद भी करना पड़ा। जर्मनी के लोगों ने भी उन्हें काफी पसंद किया, अक्सर भीड़ उनके पीछे फोटो और ऑटोग्राफ के लिए दौड़ती नजर आती थी।

दूसरे विश्वयुद्ध में ‘लापता’ हो गया जापान का ओलिंपिक

1936 के ओलिंपिक गेम्स खत्म हो चुके थे, लेकिन नाजियों की नस्लवाद और यहूदी विरोध लड़ाई अब भी जारी थी, जो दूसरे विश्व युद्ध का कारण भी बनी। 1939 में जर्मनी की नाजी सेना ने हिटलर पर अटैक कर दिया। इंग्लैंड और फ्रांस, पोलैंड की मदद करने आगे आए और जर्मनी से वॉर की घोषणा कर दी। देखते ही देखते दुनिया की क्रूर लड़ाइयों में से एक द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। 1939 के आखिरी तीन महीनों में नाजियों ने 65 हजार यहूदियों और पोलिश लोगों को मौत के घाट उतार दिया।

दूसरे विश्वयुद्ध के बीच 1940 के ओलिंपिक की मेजबानी के लिए जापान को चुना गया।

जापान ओलिंपिक की मेजबानी करने वाला एशिया का पहला देश बनने जा रहा था। 21 सितंबर 1940 की तारीख ओपनिंग सेरेमनी के रूप में तय की गई, लेकिन 1938 तक जापान और चीन के बीच टेंशन बढ़ने लगी। दोनों देशों के बीच जैसे-जैसे युद्ध तेज हुआ, वैसे-वैसे ओलिंपिक की मेजबानी की संभावनाएं कमजोर होती चली गईं। जापान सरकार ने खेलों की बजाय युद्ध में पैसा लगाया। अंत में चीन से बिगड़े संबंधों का हवाला देते हुए जापान ने ओलिंपिक की मेजबानी से इनकार कर दिया। लिहाजा 1940 के ओलिंपिक को वर्ल्ड मीडिया ने लापता ओलिंपिक का नाम दिया।

जापान के बाद ओलिंपिक की मेजबानी हेलेंस्की को सौंपी गई, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते यहां भी आयोजन नहीं हो सका। आखिरकार ओलिंपिक पहले 1944 फिर 1948 तक के लिए रद्द कर दिए गए। आखिरकार 1948 में लंदन से फिर से ओलिंपिक खेलों की फिर शुरुआत हुई, लेकिन इसमें जर्मनी और जापान के खिलाड़ियों को एंट्री नहीं दी गई।

1948 लंदन ओलिंपिक की ओपनिंग सेरेमनी की तस्वीर।

1948 लंदन ओलिंपिक की ओपनिंग सेरेमनी की तस्वीर।

ओलिंपिक के मैदान तक पहुंचा अमेरिका-USSR का शीत युद्ध

दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया मुख्य रूप से दो गुटों में बंट गई। जिसमें एक गुट अमेरिका और उसके सहयोगी देशों का था। वहीं दूसरी तरफ सोवियत यूनियन था। दोनों ही गुट किसी भी तरह एक दूसरे से खुद को बेहतर दिखाना चाहते थे। जिसमें राजनीति और कूटनीति से लेकर सिनेमा और खेल जगत भी शामिल था। USSR ने एक तरफ सिनेमा में साम्यवादी विचारधारा को दिखाने के लिए अलग से मंत्रालय बनाया था, तो वहीं स्पोर्ट्स खास तौर पर ओलिंपिक में अमेरिका से आगे निकलने के लिए खास सिस्टम तैयार किया था।

सोवियत यूनियन के शासक रहे जोसेफ स्टालिन को चिंता थी कि सोवियत एथलीट वर्ल्ड लेवल के नहीं हैं। ऐसे में ओलिंपिक में सफलता सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने भारी निवेश किया। खेल सुविधाओं, अकादमियों, कोचिंग और ट्रेनिंग प्रोग्राम्स में काफी बदलाव किया गया। USSR में एथलीट को लगभग एक वर्ष के लिए घर से दूर ट्रेनिंग कैम्प में रखा जाता था।

कम्युनिस्ट खेल संघों द्वारा कोच पर बेहतर रिजल्ट के लिए दबाव बनाया जाता। जिसका इफेक्ट खिलाड़ियों पर भी दिखता। कोच खिलाड़ियों को शारीरिक और मौखिक तौर पर अब्यूज करते थे, साथ ही कई दिनों तक भूखा भी रखते थे। इसके अलावा खिलाड़ी की सहमति के बिना और बिना किसी जानकारी के उन्हें प्रतिदिन विटामिन और सप्लिमेंट के नाम पर कई तरह की गोलियां भी खिलाई जाती थीं। इस तानाशाही भरे स्पोर्ट्स कल्चर का असर 60 के दशक में आयोजित ओलिंपिक में सोवियत यूनियन के बेहतर प्रदर्शन के रूप में भी देखने को मिला।

कोविड के कारण पहली बार 4 नहीं 5 साल बाद हुए ओलिंपिक

दूसरे विश्व युद्ध के करीब 7 दशकों बाद साल 2020 में फिर एक बार ओलिंपिक खेलों को रद्द करने का खतरा मंडराया। कोविड के बीच 24 मार्च 2020 को जापान सरकार ने IOC की सलाह पर खेलों को एक साल के लिए टाल दिया। यह ओलिंपिक के इतिहास में पहला मौका था जब किसी आयोजन को तय तारीखों से एक साल आगे खिसकाया गया हो।

जापान इन खेलों को किसी भी तरह से रद्द नहीं होने देना चाहता था क्योंकि इन खेलों के लिए उसे पहले कई परेशानियों का सामना करना पड़ा था। पहले जापान को होस्टिंग के लिए अन्य देशों से कड़ी टक्कर मिली तो वहीं टोक्यो की जनता भी आयोजन का विरोध कर रही थी। ओलिंपिक खर्च, विदेशी कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट, एन्वायर्नमेंट चैलेंज और कोविड जैसी मुश्किलों को पार करके 2021 में जापान ने ओलिंपिक की मेजबानी की।

***

ओलिंपिक सीरीज के चौथे किस्से में जानेंगे कि ओलिंपिक को आखिर क्यों 1976 से 1988 तक विभिन्न देशों की तरफ से बायकॉट झेलना पड़ा?

***

बुक रेफरेंस-

  • Hitler’s Olympics The 1936 Berlin Olympic Games – By Christopher Hilton
  • Hitler’s Olympics The Story of The 1936 Nazi Games – By Anton Rippon
  • What Are The Summer Olympics – Gail Herman

रेफरेंस-

[ad_2]